सच तक 24 न्यूज़ कोंडागांव
इस चुनाव ने बहुत कुछ सिखा दिया खासकर कांग्रेस को. 2023 के चुनाव ने सीखा दिया कि मतदाताओं का दिल रूपए पैसे दारू मुर्गा साड़ी कंबल,,माईक सेट क्रिकेट किट से नहीं जीता जा सकता. एक सीधा-साधा मजदूर किसान भी करोड़पति प्रत्याशी को हरा सकता है। यदि पैसे से चुनाव जीता जाता तो साजा विधानसभा में सात बार के विधायक रविंद्र चौबे को ईश्वर साहू जैसा मजदूर व्यक्ति नहीं हरा पाता। रविंद चौबे के सामने ईश्वर साहू की क्या बिसात अनुभव में न धन दौलत। उनके साथ अगर कुछ था तो बिरनपुर की घटना में उनके बेटे की मौत का गम साथ था. दूसरा उदाहरण कवर्धा का भी देख सकते हैं जहां वन मंत्री रहे मोहम्मद अकबर, सबको पता है वन मंत्री का क्या मतलब होता है पिछला चुनाव 60000 वोटो से जीते थे. छोटा-मोटा लीड नहीं है। इस चुनाव में वे 39500 वोटो के अंतर से चुनाव हार गए अभी भी जब वे सो कर उठते हैं तो उनको यह बुरा स्वप्न जैसा लगता होगा. एक झंडे के विवाद के बाद रोहिंग्या और शरणार्थियों के मुद्दे ने वहां पूरा पासा पलटकर रख दिया. कोंडागांव का मामला भी कम रोचक नहीं है मोहन मरकाम को पीसीसी अध्यक्ष बनाकर पूरे प्रदेश की जिम्मेदारी दे दी गई बाद में मंत्री भी बना दिया गया। उनके जैसा मिलनसार आदमी पूरे विधानसभा में ढूंढने से नहीं मिलता था. अब हालत उलट हो गया. क्षेत्र के मतदाता बताते हैं कि चुनाव से पहले मोहन मरकाम एक बेहद सरल सज्जन सीधे-साधे एक आदिवासी नेता के रूप में जाने पहचाने जाते थे उनकी मिलनसारिता, बड़ों को सम्मान देना छोटों से स्नेह, बराबर वालों से गले मिलना यह सब उनकी खूबी रही. बुजुर्ग बताते हैं कि वे जब भी मिलते पैर छूकर प्रणाम करते केवल औपचारिकता ही नहीं बल्कि दोनों हाथों से पैर छूते थे चुनाव जीतने के बाद भी कुछ दिनों तक उनका व्यवहार वैसा ही था किंतु उनको पीसीसी अध्यक्ष बनाना उनके लिए भारी पड़ गया. बुजुर्ग बताते हैं पीसीसी अध्यक्ष बनने के बाद वे जिनके चरण स्पर्श करते थे वह बंद हो गया उल्टे अब जो बुजुर्ग उनका हाथ जोड़कर नमस्कार करते तो उसका जवाब भी नहीं मिलता शायद उनको ऐसा लगता कि यह आदमी अपना काम निकालने आया है तो वह उनकी तरफ देखते हुए भी दूसरी और मुंह फेर लेते जैसे कि उनको देखा ही नहीं। ऐसा अनेक लोगों के साथ हुआ लोगों का कॉल रिसीव करना तो उनसे होता ही नहीं था कई लोग कई बार मुसीबत में पड़े रहे ऐसी स्थिति में उनको याद किया पर वह बड़े लोगों के बीच में व्यस्त रहे। धीरे-धीरे एहसास हुआ कि मोहन मरकाम अब हमारे नहीं रहे। वे बहुत बड़े नेता बन चुके थे, प्रदेश एवं देश के बड़े नेताओं के बीच उनका उठना बैठना होता था ऐसी स्थिति में ग्रामीणों का फोन कैसे उठाते। अब खुद को तसल्ली देने के लिए हारे हुए लोग भगवा लहर या मोदी लहर बता रहे हैं अगर भगवा लहर होता तो बगल की सीट में लखेश्वर बघेल जी कैसे जीते सावित्री मांडवी क्यों जीती महेश गागड़ा क्यों हारे कोंडागांव की सीमा से लगे सिहावा में कांग्रेस क्यों जीती अब तसल्ली के लिए कुछ भी कहा जा सकता है।